रात्रि अधिक व्यतीत हो चुकी थी। दिव्यकैवल्य फिर रुके नहीं, चले गये, लेकिन जाते समय मेरे आग्रह पर प्राणचक्र पर मन को कैसे स्थिर और एकाग्र किया जाता है यह बतला गये। उसी समय से शुरु कर दी मैंने प्राणचक्र पर मन को एकाग्र करने की क्रिया। फिर लगातार चली वह क्रिया। दिन में दैनिक कार्य करता और रात्रि में केवल साधना। पूरा एक महीना निकल गया लेकिन लाभ कुछ नहीं हुआ। किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली। लेकिन हताश, निराश नहीं हुआ। एक दिन अचानक पेट में भयंकर दर्द होने लगा। तकलीफ़ बढती गयी। दवा ली लेकिन कोई लाभ नहीं। कभी-कभी ऐसा लगता था कि पेट में एक विशेष स्थान पर सुई जैसा कुछ चुभ स रहा है। मेरी साधना का समय हो रहा था लेकिन कष्ट के कारण मन स्थिर और एकाग्र नहीं हो पा रहा था। क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन उसी दारुण स्थिति में किसी प्रकार प्राणचक्र पर मेरा मन स्थिर हो गया और फिर तो सब कुछ भूल गया मैं। बड़ी शान्ति का अनुभव हो रहा था उस समय।
उसी परम शान्ति की अवस्था में मैंने देखा कि मैं अपने स्थूल शरीर से अलग हो गया हूँ। मैंने अपने दोनों शरीरों को एक साथ देखा निरपेक्ष भाव से। दोनों शरीरों में किसी प्रकार का वैषम्य नहीं था। यदि वैषम्य था तो केवल इतना कि स्थूल शरीर गौरवर्ण का था और सूक्ष्म शरीर था उज्ज्वल वर्ण का। मैं पद्मासन की मुद्रा में बैठा हुआ था और मेरे ठीक सामने मेरा उज्ज्वल वर्ण सूक्ष्म शरीर भी पद्मासन की मुद्रा में बैठा था। वह पारदर्शी था लेकिन सब कुछ स्पष्ट था।
उस दिन से नित्य मेरा सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से अपने आप अलग होने लग गया। मुझे इसके लिये कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। बस प्राणचक्र पर मन को एकाग्र करता और सूक्ष्म शरीर अलग हो जाता मेरी स्थूलकाया से। उस समय बड़ा ही सुखद अनुभव होता मुझे। कभी-कभी आनन्दमग्न हो जाता मैं। कब कितना समय व्यतीत हो जाता इसका ज्ञान न रहता मुझे।
Abhautik Satta Me Pravesh (Entering into Metaphysical Existence)
Title Abhautik Satta Me Pravesh
(Entering into Metaphysical Existence)Author Shri Arun Kumar Sharma Language Hindi Publication Year: Second Edition - 2006 Price Rs. 250.00 (free shipping within india) ISBN 9AGASMPH Binding Type Hard Bound Pages xiv + 296 Pages Size 22.5 cm x 14.0 cm